डॉ० सुशील उपाध्याय लेखनी द्वारा माँ को समर्पित कुछ पंक्तियाँ

मां की मुट्ठी में वक्त….. 

मां के रहते
सब कुछ समय पर होता था!
जैसे-
दिन का निकलना
धूप का खिलना
हवा का बहना
सूरज का ढलना
घने कोहरे में
आंखों पर ओस की बूंदों का चिपकना
और घर के नीम पर पंछियों की चैं-चैं
जैसे-
चूल्हे का जलना
दूध का उबलना
रोटियों के सिकने-पकने की महक
पूजाघर की घंटियां
और
निंदियाये चेहरे पर पानी की ताजा बूंदें
मां के रहते
सब कुछ समय पर होता था!
…………………
मां पहचान लेती थीं
रिश्तों की खटास
कमजोर कडि़यों पर लगा देती थीं
मजबूती का जोड़,
मांग लेती थीं नीम पर छत्ता जमाए बैठी
मधुमक्खियों से शहद,
रख देती थीं कसैली जीभों पर।
अचानक किसी शाम
लोबान खुशबू से भर जाता था घर
मां के रहते
सब कुछ समय पर होता था-
…………………
बस्ते के गहरे कोने में छिपाई गई
अधूरे होम-वर्क की काॅपियां
धीरे-से दे देती थीं भनक,
खोई गई किताबें भी मां के कान में
कह जाती थीं राज की बातें,
स्कूल की घंटी से पहले
सब कुछ होता था सजा-संवरा और व्यवस्थित
एक भी दिन गायब नहीं होता था समय
न समय के खो जाने का मलाल
न गुंझलें
न दुख
न द्वंद्व
न संताप
न संत्रास
न विफलताओं का डर,
मां के रहते
सब कुछ समय पर होता था-
……………………..
हरेक जन्मदिन,
वर्षगांठ
गाय के बच्चा देने की तारीख
शुभ-कर्माें की तिथियां, वार
बच्चों के मुंडन,
यज्ञोपवीत
ब्याह-शादी
और भी गिने-अनगिने संस्कार,
परदेस गए परिजनों की याद,
दरवाजे पर चौ \मासे के गीत,
सावन में बिरह के आंसू
अमावस की अंधेरी रात में
नियति-चक्र पूरा करता चंद्रमा,
विराट आसमान में तारों की लुक-छिप,
मां के रहते
सब कुछ समय पर होता था!
…………….
यहां तक कि
शाम होते ही पलकों पर नींद आ बैठना
रात के चौथे पहर में
डरावने सपनों के साथ उठ जाना
फिर सोना और सूरज के साथ जगना,
सबसे अच्छे दोस्त के लिए
घर से मिठाई चुरा लेना,
अपना खिलौना तोड़कर
बहन के सिर पर तोहमत मढ़ देना,
हर दिन शिकायतों का अंबार लगाना,
रूठना,
मनना
और फिर मन कर रूठ जाना,
बेसुरे, बेतरतीब गीतों को गुनगुनाना,
मां के रहते
सब कुछ समय पर होता था!

डॉ० सुशील उपाध्याय