*सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं साहित्यकार स्व. रमेश चन्द्र अनिल की 98वीं जन्मतिथि पर उनकी संगीताचार्य पुत्री श्रीमती संगीता सक्सेना का संस्मरण लेख..

‘मैं किसकी आस करूँ

औ’ किस पर तन मन वारुं

मैं किसकी आस करूँ ‘

जैसे अनगिन गीत रचे पापा श्री रमेश अनिल ने और स्वयं की सुरीली धुनों में मंचों पर भी प्रस्तुत किए जिन्हें उनके समय के लोग आज भी याद करते हैं।

अपने गीत पापा ने हमें भी सिखाये जिन्हें मैं भी अक्सर गाया करती हूँ।

एक और गीत है…

‘ कसे हुए अभिलाषाओं को आज द्वन्द्व के बंधन,

घिरे आ रहे पलकों में सावन के कजरारे घन

डूब रहा लो आज सुबह का अंतिम एक सितारा,

लाख जलाए दीप न बुझ पाया मन का अंधियारा

लाख जलाए दीप।’

– कवि- स्व. श्री रमेश ‘अनिल’ ,

मेरे पिता देश के स्वतंत्रता सेनानी एवं साहित्यकार जिनकी आज 98वीं ज़न्मतिथि है।

मेरे पिता को स्वतंत्रता पश्चात् मंत्रीपद के योग्य माना गया किंतु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया तब उनको 150 बीघा कृषि भूमि सम्मानस्वरूप दी गई जिसको ग्रामीण लोग संभालते थे अतः बाद में पापा ने वो भूमि परिश्रमी ग्रामीणों को ही सौंप दी । जब उनको ताम्रपत्र से सम्मानित किया गया तब भी पापा का कहना था कि हमने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अगर आंदोलन किए तो पुरस्कृत होने के लिए थोड़े ही किए थे ।

कोटा की साहित्यिक संस्था भारतेन्दु समिति के संस्थापक एवं स्वतंत्रता सेनानी पिता स्व ०हनुमान प्रसाद सक्सेना के सुपुत्र होने के नाते रमेश “अनिल “जी ने भारतेंदु समिति के साहित्य मंत्री का पद पूरी ईमानदारी से सम्भाला और 1977 में समिति का भव्य स्वर्ण जयन्ति समारोह आयोजित करके अपने पिता के स्वप्न को पूरा किया ।मेरे पिता के हर कार्य में मेरी माँ अंग्रेज़ी की व्याख्याता और लेखिका स्व विमला सक्सेना ने भी पूर्ण सहयोग दिया ।

ऐसे ऊर्जावान् माता पिता की संतान होने के नाते मेरा मानना है कि यदि हम अपने माता पिता के सिद्धांत जीवन में अपनाकर चल रहे हैं तो वे हममें सदैव जीवित हैं इसलिये मैं कभी नहीं कहती कि मेरे माता पिता की मृत्यु हो चुकी है, वे दोनों तो मेरी रगों में लहू और मेरे दिनचर्या में संस्कार रूप में सदैव जीवित हैं और रहेंगे।

दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें जाने के बाद भी याद करके लोग मुस्करा दिया करते हैं… ऐसे ही हंसमुख प्रकृति, आत्मविश्वास से भरपूर और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे मेरे पापा…हमें देर रात तक हारमोनियम पर गाने सिखाते तो इतना मीठा हारमोनियम बजाते और गाते थे कि क्या कहने और जब कलम चलती तो लोग उनकी कहानी की तुलना शरतचंद्र से करते ,उनकी कविताओं में उत्कृष्ट शब्द संयोजन मिलता और पत्रकार के रूप में उनकी बेबाक छवि थी….

आज भी कभी मन दुखी होता है तो बहुत याद आते हैं पापा….

किसी की बड़ी अच्छी पंक्तियाँ हैं….

जिन्दगी के अंधेरों में वो जलती मशाल थे,

मुसीबतों से बचने को वो परिवार की ढाल थे,

कहाँ जी पाये थे वो अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से

पिता हमारे कोई आम शख्स नहीं त्याग की एक मिसाल थे।

 

वक़्त बीत गया लेकिन रह गयी हैं वक़्त की परछाईं

आपके जाने के बाद कुछ बची है तो बस तन्हाई

निकल पड़ते हैं आँख से आँसू और दिल बैठ जाता है

जब भी याद आती है बातें जो आपने थी बताई।

इंही शब्दों के साथ प्रदेश समाज व राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले पिता को

सादर श्रध्दांजलि…

श्रीमती संगीता सक्सेना शास्त्रीय गायिका एवं गुरु लेखिका