आयुष विजयवर्गीय की कविता सद्गुरु तुमको बारम्बार प्रणाम

सद्गुरु तुमको बारम्बार प्रणाम

जीव जगत में रहते,करना पड़ता है संग्राम

गुरु की छाया ऐसी,जैसे लगता है विश्राम

दर दर ठोकर खाते खाते ,बीत गयी थी शाम।

राहें समझ ना आती,बस बड़ता था कोहराम ।।

जब हालातों से हार गए,

मिट्टी के रिश्ते बिखर गए।

संकट में न कोई सहारा था,

अपना किसे गंवारा था,?

तब जीवन में बनकर आए, आप प्रभु श्रीराम।

हुए मनोरथ पूर्ण सभी,जीवन बना सुख धाम।।

सुखधाम बने इस जीवन से, भावों का अर्पण करतें हैं।

शब्दों की अगणित सीमा से,चरण वंदना करतें हैं।

श्रद्धा के भाव उमड़ रहे, लगता नहीं विराम।

गुरु से बढ़कर सद्गुरु तुमको,बारम्बार प्रणाम।।

 

आयुष विजयवर्गीय

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