चित्रा सिंह चेतना की हृदयस्पर्शी कविता

“ज़िंदगी की कश्मकश”

जिसे चाहा वो कभी पाया नही,

जो पाया उसे मैने चाहा नही

जो मिला वो ख़ास नही था,

जो ख़ास था वो पास नही था

जो पास था वो अच्छा कहाँ था,

जो अच्छा था वो सच्चा कहा था

जो सच्चा था वो तो मिला ही नहीं,

एक फूल था दिल में जो कभी खिला ही नहीं

बस कुछ इसी कश्मकश में, ज़िंदगी

गुजरती चली गई

और मैं, गिरती उठती संभलती और संवरती चली गई।

पर हां फिर भी कुछ ना कुछ तो कमी है जिंदगी में

सबकुछ होते हुए भी थोड़ी नमी है जिंदगी में

खुशियां तो है मफर तन्हाइयां भी है जिंदगी में

और एक वो सुकून ही है जो

गुम कहीं है ज़िंदगी में।

वो कुछ तो है जो शायद मैं कभी पा ना सकी

ज़िंदगी के उस मकाम तक अभी तक मैं जा ना सकी

बस कुछ इसी कश्मकश में ज़िंदगी

गुजरती चली गई

और मैं गिरती उठती संभलती, और संवरती चली गई. ..

और मैं गिरती उठती संभलती, और संवरती चली गई….

और मैं गिरती उठती संभलती, और संवरती चली गई……

रचयिता: चित्रा सिंह चेतना