समय चक्र…

एक ऐसा चक्र जिससे आज तक कोई भी नहीं निकल पाया है। हम चाहें या न चाहें इसमें फंस ही जाते हैं। ये उपन्यास जहां एक ओर दो पीढ़ीयों का तुलनात्मक अध्ययन भी है तो दूसरी और समाज का भावनात्मक अध्ययन भी है।

लेखिका ने कथानक को 10 भागों में विभाजित किया है। इन दस भागों में जीवन के हर रंग देखने और पढ़ने को मिलते हैं। ये एक मध्यम वर्गीय भारतीय समाज की कहानी है जिसे नायिका के इर्द गिर्द की घटनाओं के माध्यम से दर्शाया गया है।

इसमें एक बेटी का बालपन, उसकी व्यथा, उसका चिंतन, समाज की समस्याओं के प्रति उसकी अपनी अलग सोच और उस सोच से बाहर आती एक समाज सुधारक की छवि बनाती है जो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी से कभी मुंह नहीं मोड़ती है।

इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका महिला सशक्तिकरण,दहेज जैसी कुप्रथाओं, वर्तमान परिवेश की समस्याओं जैसे घर और कार्य संतुलन के बीच परिवार को संभालने, सोशल मीडिया के दुष्परिणाम, आधुनिक कार्य संस्कृति, और जीवन के सकारात्मक आयाम को छूने का प्रयास करती है।

उपन्यास को हिंदी भाषा को लोकप्रिय बनाने का एक प्रयास भी देखा जा सकता है। सरल शब्दों एवं सरल भाषा का प्रयोग और साथ ही कहीं कहीं प्रादेशिक भाषा का प्रयोग इसे रोचक बनाते हैं । साथ ही मनोवैज्ञानिक स्तर पर इस उपन्यास का एक लक्ष्य जीवन के कुछ पहलुओं या कहें समस्याओं के हल तक पहुंचने का प्रयास भी लगता है।

देखा जाए तो जीवन की राह में आने वाली बाधाओं से परे निकालने में अत्यंत सहायक है ये पुस्तक। एक बार आरंभ करने के बाद अंत तक पहुंचने के लिए उत्सुकता निरन्तर बनी रही।

उत्तम मुख्य पृष्ठ…उत्तम लेखन…उत्तम पाठन…

भावना रायज़ादा, बरेली उ. प्र.

About The Author