डॉ. विकास शुक्ला का लेख “अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चश्व और वैकल्पिक ढांचे की तलाश” , डॉ. विकास गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, जखोली (रुद्रप्रयाग) उत्तराखंड में राजनीति विज्ञान विभाग, में असिस्टेंट प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष हैं।

दुनिया को एकध्रुवीय कहने का लेशमात्र भी कोई मतलब नहीं है|इतिहास में ऐसा एक भी दौर नही रहा जब दुनिया में बहुध्रुवीय व्यवस्था न रही हो। इतिहास के प्रत्येक युग में विश्व में बहुध्रुवीय व्यवस्था रही है।

वर्तमान में हम जिस संदर्भ में दुनिया को एकध्रुवीय कह रहे है वह संदर्भ बहुत ही नया है और एक प्रकार से यह एक उदारवादी खेमे के द्वारा गढी हुई अवधारणा है जिसका निर्धारक अमेरिका है|इस अवधारणा का संबंध सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवादी देशों मुख्य रूप से अमेरिका के इस मिथ्या प्रचार से है जिसमें उसने कहा कि विश्व से अब समाजवाद समाप्त हो गया है,और इस विश्व में केवल पूंजीवाद रह गया है।

फ्रांसिस फुकुयामा भी इसी थीसिस को स्थापित करते हुए पूंजीवाद की विश्वव्यापी विजय की घोषणा करता है जो एक वैचारिक दिवालियेपन के विचार से अधिक कुछ नही थी। इस विचार के केंद्र में जो वर्चश्व स्थापित करने की महत्वाकाँक्षा पनप रही थी,जिसमे यह बात निहित थी कि सोवियत संघ के विघटन के पश्चात एक ही महाशक्ति वैश्विक पटल पर बची है और वह है‘अमेरिका|अतः दुनिया एकध्रुवीय हो गई है।

इस पूरी कवायद में एकध्रुवीयता के दो मौलिक अर्थ निकलते है पहला- यह कि सम्पूर्ण विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था और दूसरा सम्पूर्ण विश्व पर अमेरिकी वर्चश्व|लेकिन यह विचार पश्चिम अथवा उदारवादी खेमे मुख्य रूप से अमेरिका का गढ़ा हुआ है जिसमें पूंजीवाद और अमेरिका की आकांक्षा तो हो सकती है परंतु यथार्थ के धरातल पर यह अवधारणा ध्वस्त होती हुई दिखाई देती है। क्योंकि समकालीन विश्व व्यवस्था में शक्ति के अनेक केंद्र उभरकर हमारे सामने आए है और खासकर कोविड -19 वैश्विक महामारी ने एकध्रुवीय विश्व और अमेरिकी वर्चश्व को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। राज्यों के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष अपने चरम पर है जिसे मैं हमेशा मोर्गेन्थौ प्लान कहता हूँ.. एक बार पुनः चरितार्थ होता हुआ दिखाई दे रहा है।
हाँ मै वाकई चाहता हूँ कि बहुध्रुवीय विश्व बने और जाहिर है इसका मतलब है विश्व को एकध्रुवीय बनाने की उस अमेरिकी परियोजना की पराजय,जिसका एकमात्र उद्देश्य है समूची दुनिया को सैनिक नियंत्रण मे लेकर अमेरिकी वर्चश्व को स्थापित करना।

प्रश्न तो मौलिक है इसलिए विचारणीय भी है|हमे आज दुनिया भले ही एकध्रुवीय प्रतीत हो रही हो,लेकिन वह बहुध्रुवीय बन सकती है या यूं कहें कि दुनिया बहुध्रुवीय ढांचे मे स्थापित हो चुकी है|विश्व को एकध्रुवीय बनाने की अमेरिकी परियोजना को जिसे हम समान्यतया वैश्वीकरण के नाम से जानते है जो विश्व को अंतहीन युद्धों में खींच रही है (वर्तमान में रूस-यूक्रेन युद्ध का शिल्पकार अमेरिका ही है)और उसे जनवाद और समाजवाद की दिशा में जाने से रोक रही है।

इसके चलते मैं आज उभरते अमेरिकी साम्राज्यवाद को दुर्व्यवस्था का साम्राज्य कहता हूँ|और इसकी जगह हम जिस व्यवस्था को स्थापित करने का प्रतिमान सामने रख सकते है वह हैभूमंडलीय समाजवादी व्यवस्था। भूमंडलीय समाजवादी व्यवस्था को हम अमेरिकी साम्राज्यवादी व्यवस्था का वैकल्पिक मॉडल कह सकते है। क्योंकि भूमंडलीयकरण की अवधारणा का विरोध करना एक तो अ-यथार्थवादी के साथ साथ अवांछित भी जान पड़ता है,इसलिए इसे पूर्णतया खारिज करने की बजाए हमे आवश्यकता है इसे समावेशी बनाने की।

इसी तरह बहुध्रुवीयता की धारणा भी उन लोगो की धारणा से भिन्न है जो यह मानते है कि बहु-ध्रुवीयता विश्व में शक्ति संतुलन स्थापित करने का माध्यम है। परंतु यदि शक्ति संतुलन स्थापित हो भी जाए तो इस बात की गारंटी नही दी जा सकतीकि विश्व में साम्राज्यवादी लूट और और उसके लिए होने वाले युद्धों का सिलसिला खत्म हो जाएगा। उस सिलसिले को खत्म करने के लिए तो पूंजीवादी और साम्राज्यवादी दुनिया से भिन्न एक प्रथक दुनिया को बुनना होगा जो जनवादी और समाजवादी होगी।

जहां तक बहुध्रुवीयता का प्रश्न है तो बहुध्रुवीय विश्व उत्तर और दक्षिण के संबंधो में आमूल सुधार के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिसका सीधा सा तात्पर्य हैअति-विकसित और अल्प-विकसित देशों के मध्य पूंजीवादी संबंधो में बुनियादी बदलाव,जिससे धन और शक्ति का ध्रुवीकरण या केन्द्रीकरण कम हो और विश्व साम्राज्यवादी मॉडल पर अंकुश लगाते हुए भूमंडलीय समाजवादी मॉडल की तरफ अग्रसर हो। हालांकि यह एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण परिवर्तन होगा परंतु ढांचागत परिवर्तन आसानी से आते भी तो नही है।