रावण!
रावण दहाड़ रहा है,
सत्य के विरुद्ध
मन के स्याह कोनों में!
बाहर खड़ी है,
कतारबद्ध, डरी-सहमी भीड़!
उम्मीदें सो गई हैं
कुंभकर्ण का रूप धर कर।
सारे पवित्र भाव
अंतिम हवि के वक्त पर दे गए दगा।
जा मिले हैं,
विजेता से,
विभीषण बनकर!
फिर भी
दिलासाएं कर रही हैं हवन
दे रही हैं बलि-
हुंआ-हूं कर रहे सियार।
धधक रही है अधूरे यज्ञ की अग्नि
मेघनाद की देह पर!
मंदोदरी पर भारी पड़ रहा,
सुलोचना का रुदन!
गिद्धों से भर गया
सारा आसमान!
शवाग्नि के सामने बौना हो गया
पूरब में सूरज।
अनंत मौन के साक्षी बन कर खड़े हैं-
जगत् नियंता, त्रिकालदर्शी, महावीर, महाकाल।
पर,
सीता की साक्षी देने से पहले ही
बुझ गई अग्नि,
अधूरा ही है
लक्ष्मण का आखिरी पाठ,
खड़ाऊं अब भी सजी हैं-
रघुकुल के सिंहासन पर।
क्योंकि
रावण अभी मरा नहीं है!
अट्टाहस कर रहा है-
मेरे अंतस के अंधियारे में!
डॉ सुशील उपाध्याय