वरिष्ठ पत्रकार डॉ० सुशील उपाध्याय की कलम से, पाकिस्तान पर कुछ नोट्स-36, ‘दुश्मन मुल्क’ और जिन्ना का बंगला……..
भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का स्वरूप इतना जटिल है कि इस जटिलता को सुलझाने के आसान सूत्र न इतिहास में मिलते हैं और न ही वर्तमान में।
पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति का मिजाज ऐसा है कि उसे रिश्तों का उलझाव ही अनुकूल दिखता है, पसंद भी आता है। आज की राजनीति में भी इसके अनेक उदाहरण देख सकते हैं।
इमरान खान पर हुए जानलेवा हमले के बाद जब उन्होंने इसके लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराया तो इसके जवाब में प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की उसमें इमरान खान के आरोपों का जवाब देने का सबसे आसान तरीका यह समझा गया कि उन्हें भारत का पिट्ठू साबित कर दिया जाए।
इससे भी बड़ी चिंताजनक बात यह है कि पाकिस्तान का प्रधानमंत्री अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत को ‘दुश्मन मुल्क’ कहकर संबोधित करता रहा। अब इस जटिल विरोधाभास को देखिए कि एक तरफ मेलजोल की बैक डोर कोशिशें हो रही हैं ताकि दोनों देशों के बीच स्थितियां सुधरें और दूसरी तरफ खुले मंच पर केवल विपक्ष ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भारत को ‘दुश्मन मुल्क’ बता रहा है।
यह विरोधाभास कोई हाल के दिनों की प्रवृत्ति नहीं है, वरन यह करीब एक सदी के समय अंतराल में फैली हुई है। इसका एक बड़ा उदाहरण मोहम्मद अली जिन्ना के जीवन से भी जुड़ा है। देश के बंटवारे का सबसे प्रमुख किरदार होने के बावजूद जिन्ना भारत में अपनी संपत्ति को बचाकर रखना चाहते थे।
उन्होंने अपने लिए मुंबई में मालाबार हिल्स में एक शानदार बंगला बनवाया था। उस वक्त इस बंगले की कीमत करीब दो लाख थी। इसका निर्माण 1936 में हुआ। इस विरोधाभास को इस तरह देख सकते हैं कि एक तरफ जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की मांग कर रहे थे और दूसरी तरफ वे मुंबई में आलीशान बंगला बनवा रहे थे। कम से कम उन्हें इतना नासमझ तो नहीं समझा जा सकता कि वे यह मानते हो कि मुंबई भी पाकिस्तान में शामिल कर लिया जाएगा।
यह बंगला बना और इतिहास में इसका नाम इस रूप में दर्ज हो गया कि इसी में बैठकर जिन्ना ने पहले महात्मा गांधी से और बाद में पंडित जवाहरलाल नेहरू से पाकिस्तान के गठन की सौदेबाजी की थी।
पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना गवर्नर जनरल के रूप में कराची चले गए। उस वक्त पूरा पाकिस्तान उनका था, वे मालिक की हैसियत में थे, लेकिन वे मुंबई के घर में अटके हुए थे। इस बंगले के साथ जिन्ना का मोह इतना गहरा था कि उन्होंने भारत सरकार से गुजारिश की कि इसे शत्रु संपत्ति के रूप में अधिग्रहित ना किया जाए।
गौरतलब है कि उन दिनों जो लोग भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे उनकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति के रूप में चिह्नित किया गया था। जिन्ना के इस बंगले को भारत सरकार ने शत्रु संपत्ति घोषित करने की बजाय अपने संरक्षण में रखा।
जिन्ना की उम्मीद भी बड़ी रोचक थी। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा जिसमें इस बात की गुजारिश की गई कि उनके इस बंगले को 3000 रुपये महीना के किराए पर किसी अंग्रेज अफसर को दे दिया जाए।
वे नहीं चाहते थे कि इस बंगले को किसी हिंदू या मुसलमान या किसी अन्य भारतीय को दिया जाए। उनका मानना था कि इसमें रहने की पात्रता किसी अंग्रेज में ही हो सकती है। वास्तव में उनके भीतर एक अंग्रेज ही मौजूद था। वे अंग्रेजों की तरह की जिंदगी जीते थे, वे ऐसे मुसलमान थे, जिनका इस्लाम से इतना ही वास्ता था कि उनके मां-पिता मुसलमान थे। ऐसे जिंदगी जीते हुए वे मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की मांग पर अड़े थे। यही पाकिस्तान के वजूद का विरोधाभास है।
जिन्ना को उम्मीद थी कि वे छुट्टियां मनाने के लिए पाकिस्तान से मुंबई आया करेंगे और तब इस बंगले में रहेंगे, लेकिन उनकी उम्मीद पूरी नहीं हो पाई। पाकिस्तान के गठन के कुछ समय बाद ही उनकी मौत हो गई और इस बंगले में रहने, इससे किराया हासिल करने और इसका मालिकाना हक बनाए रखने की उनकी कोशिश है नाकाम रही। बाद में इस बंगले के साथ कई तरह की कहानियां जुड़ी।
पाकिस्तान ने इसे अपने वाणिज्य दूतावास के लिए लेने की कोशिश की। भारत सरकार ने इसको अपने किसी सरकारी कार्यालय के रूप में इस्तेमाल करने का प्रयास किया। कुछ संगठनों ने इसे एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करने पर जोर दिया।
बाद में पाकिस्तान सरकार इसे स्मारक के रूप में परिवर्तित करने की कोशिश में जुटी रही। ये सब बातें प्रामाणिक रूप से इतिहास में दर्ज हैं और जो कुछ इतिहास में दर्ज नहीं है, वही असल विरोधाभास है।
इस विरोधाभास की जड़ें और शाखाएं इतनी दिशाओं में फैली हुई है कि उन्हें चिह्नित करके किसी एक खास दिशा में रेखांकित करना या संतुलन का बिंदु ढूंढना लगभग असंभव दिखाई देता है। यह कितना जटिल पहलू है कि जिस व्यक्ति को एक पूरा देश मिला, वह व्यक्ति मुंबई के एक हिस्से में बने अपने बंगले को लेकर चिंतित रहा। और यह भी कितना बड़ा विरोधाभास है कि जिस व्यक्ति की जिद के कारण कई लाख लोग मारे गए, डेढ़ करोड़ लोगों को अपना घर-बाहर, धरती-जमीन, मुल्क-वतन छोड़ना पड़ा, वह व्यक्ति इस बात की कामना करता है कि छुट्टियों के दिनों में भारत आएगा और देश के विभाजन के बावजूद मुंबई का बंगला उसका अपना बना रहेगा।
यही वह विरोधाभास है जो पाकिस्तान की मुख्यधारा की पार्टियों और उनके नेताओं में आज भी दिखता है। अभी तक आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि पाकिस्तान में विरोधी पार्टियों का रुख भारत के खिलाफ होता है, जबकि सत्ताधारी पार्टी और सरकार संभल कर व्यवहार करती है, लेकिन पाकिस्तान में पहली बार ऐसा हो रहा है की मुख्य विपक्ष इमरान खान खुद अलग-अलग मौकों पर भारत की प्रशंसा करते रहे हैं और सत्ता में बैठे लोग भारत को घोषित तौर पर दुश्मन देश बता रहे हैं।
ऐसी दुश्मनी और निकट बने रहने की चाहत से पैदा हुआ विरोधाभास शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश में देखने को मिले। और हमेशा के लिए बिछड़ जाने के बावजूद ऐसी तड़प भी शायद ही कहीं और नजर आए।
जारी….
डॉ० सुशील उपाध्याय