राष्ट्रीय शिक्षा नीति-25: गर्ल्स कॉलेज नहीं, को-एजुकेशन जरूरी
वरिष्ठ पत्रकार डॉ० सुशील उपाध्याय की कलम से….
पिछले दिनों जमीयत उलेमा-ए-हिंद के मुखिया मौलाना अरशद मदनी का एक बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि ज्यादातर अपराध और अनैतिक काम इसलिए हो रहे हैं क्योंकि लड़के-लड़कियां साथ पढ़ रहे हैं, यदि समाज को बचाना है तो देश से को-एजुकेशन खत्म करनी होगी।
उनके इस विचार को यदि कैटिगराइज करना हो तो कहा जा सकता है कि वे पुरातनपंथी हैं, दकियानूसी हैं, कट्टर सोच रखते हैं। अब सवाल यह है कि क्या लड़के-लड़कियों को, खासतौर से उच्च शिक्षा में, एक साथ पढ़ने देने का विचार सरकारी तौर पर अथवा संस्थानिक रूप से स्वीकार किया जाता है कि नहीं!
आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो इसका जवाब ‘हां’ में है। लेकिन, हाल ही में वर्ष 2020-21 की अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में आजादी के 75 साल यानी उच्च शिक्षा से तीन पीढ़ियों के गुजर जाने के बाद भी देश में अनेक संस्थाएं ऐसी हैं जो केवल लड़कियों के प्रवेश तक ही सीमित हैं।
जब इन संस्थाओं को शुरू किया गया था, उस वक्त समाज इतना प्रगतिशील नहीं था। लोगों की दृष्टि संकुचित थी। तब वे मानते थे कि लड़के और लड़कियों के एक साथ पढ़ने से सामाजिक और नैतिक संकट पैदा होगा। तब ये वास्तव में जरूरी थीं। इनमें से कई संस्थाएं ऐसी हैं जो 100 साल या इससे भी अधिक पुरानी हैं।
हर बड़े शहर में कोई न कोई ऐसी संस्था मिल जाएगी जो आजादी से भी पहले से महिला शिक्षा के लिए काम कर रही है। समकालीन संदर्भ में यह प्रश्न मौजूद है कि ऐसी जो संस्थाएं सरकार के पैसे पर चल रही हैं अथवा सरकार द्वारा उनका राजकीयकरण कर दिया गया है, क्या उन्हें भी को-एजुकेशन से दूर रहना चाहिए!
क्या उनके संचालक भी मानते हैं कि लड़के और लड़कियों के एक साथ पढ़ने से समाज में बिगाड़ पैदा होता है! और इससे भी बड़ा सवाल ये कि क्या यह देश के संसाधनों का दुरुपयोग नहीं है कि जब अच्छी उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए मारामारी मची हो तब कुछ संस्थाओं को केवल लड़कियों के प्रवेश तक सीमित कर दिया जाए।
यह स्थिति किन्हीं छोटे शहरों या दूरदराज के इलाकों तक सीमित नहीं है, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई, देश की सांस्कृतिक राजधानी बनारस, देश की बौद्धिक-साहित्यिक राजधानी कोलकाता, सिलिकॉन सिटी बेंगलुरू, तमिल संस्कृति के गढ़ चेन्नई आदि में आज भी अनेक गर्ल्स कॉलेज मौजूद हैं।
अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे की ताजा रिपोर्ट बताती है कि देश में 4375 कॉलेज ऐसे हैं जो केवल लड़कियों को ही एडमिशन देते हैं। यह संख्या देश में उपलब्ध कुल कॉलेजों का 10 फीसद से अधिक है। पूरे देश के संदर्भ में देखें तो वर्तमान में 18 से 23 साल के एज-ग्रुप के लिए लगभग एक लाख छात्रों पर 31 कॉलेज मौजूद हैं, लेकिन इसमें से लड़कियों के कॉलेज निकाल दें तो फिर लड़कों के सामने कॉलेजों में एडमिशन का दबाव बढ़ जाता है। केवल कॉलेज ही नहीं, बल्कि इस समय देश में 17 विमेंस यूनिवर्सिटी हैं।
इनमें 14 सरकारी और एक सरकार की सहायता पर चलने वाली डीम्ड यूनिवर्सिटी है। इनके अलावा दो प्राइवेट यूनिवर्सिटी भी इस श्रेणी में हैं। अभी प्राइवेट सेक्टर की बात छोड़ भी दी जाए तो कम से कम सभी सरकारी संस्थाओं में को-एजुकेशन को अनिवार्य किए जाने की आवश्यकता है। और यह बात केवल लड़कियों के संदर्भ में ही लागू नहीं होती, बल्कि देश में 72 ऐसे कॉलेज हैं, जहां केवल लड़कों को प्रवेश दिया जाता है। इसमें गुरुकुल कांगड़ी जैसे विश्वविद्यालय भी शामिल हैं, जहां लड़के और लड़कियों के कैंपस अलग-अलग हैं। अब विचार कीजिए कि केवल लड़कियों को ही नहीं, इन 72 संस्थाओं में पढ़ने वाले लड़कों को भी शायद लड़कियों से खतरा होगा! अथवा इनके बिगड़ने का डर होगा! या फिर दोनों के बिगड़ने का डर है!
को-एजुकेशन को समाप्त किए जाने के विचार पर कुछ लोग यह कहकर विरोध करेंगे कि इससे उच्च शिक्षा में आने वाली लड़कियों की संख्या प्रभावित होगी और वे इस आंकड़े को भी सामने रखेंगे कि सन 2020-21 में लड़कों की तुलना में 1 फीसद अधिक लड़कियां उच्च शिक्षा में पंजीकृत हो रही हैं, जिनमें गर्ल्स कॉलेजों और विमेंस यूनिवर्सिटी का बड़ा हाथ है। यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है, लेकिन इसके सामने दूसरे तर्क को देखिए। देश में राष्ट्रीय महत्व के 40 संस्थानों और इन्हीं के स्तर के अन्य संस्थानों मैं एक भी ऐसा नहीं है जो केवल लड़कियों के लिए ही हो।
यदि इन विशेष संस्थाओं में भी कुछ केवल लड़कियों के लिए स्थापित की जाती तो माना जा सकता था कि उनके साथ न्याय हुआ है। उदाहरण के लिए देश में आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी, एम्स, आईआईएससी, पीजीआईएमईआर आदि में कोई भी केवल लड़कियों के लिए सीमित नहीं है। तो क्या लड़कियों को सारा खतरा बीए, बीकॉम, बीएससी या इसी तरह की सामान्य डिग्री कराने वाले संस्थानों में ही है! वहीं पर सारे अनैतिक काम होते हैं।
वस्तुतः होना तो यह चाहिए कि सामान्य सभी इंस्टिट्यूट में तत्काल को-एजुकेशन खत्म की जाए या फिर राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में से कुछ संस्थान पूरी तरह से लड़कियों के लिए रखे जाएं ताकि उन्हें बराबर का मौका मिल सके।
एआईएसएचई की रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में लड़कियों की संख्या कुल उपलब्ध सीटों की तुलना में एक तिहाई भी नहीं है। यानी इन विशिष्ट संस्थानों में अवसर हासिल करने के मामले में लड़कियों की तुलना में लड़के ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं, जबकि सामान्य एजुकेशन में ऐसा नहीं है।
इस दृष्टि से यदि लड़कियों के लिए अलग संस्थान बनाने हैं तो ये संस्थान बीए, बीकॉम, बीएससी वाले कॉलेज नहीं, बल्कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थान होने चाहिए। और यदि लड़कियों को बराबर अवसर देने हैं तो फिर इन संस्थाओं के भीतर उन्हें रिजर्वेशन दिया जाए ना कि उनके लिए अलग से गर्ल्स या विमेंस कॉलेज खोलकर यह दिखाने की कोशिश की जाए कि सरकार आज भी महिला उच्च शिक्षा को लेकर अत्यधिक गंभीर है।
अब अरशद मदनी के बयान को दोबारा देखिए जिसमें उन्हें खतरा महसूस होता है कि लड़के और लड़कियों के एक साथ पढ़ने से समाज में अनैतिकता, पाप और अपराध बढ़ रहा है। तो सवाल यह है कि बसों में एक साथ यात्रा करने, हवाई जहाज और ट्रेन में एक साथ बैठकर जाने, ऑफिस में साथ-साथ काम करने और यहां तक की अस्पतालों में एक साथ इलाज कराने जाने से भी इसी तरह की अनैतिकता, पाप एवं अपराध की आशंका पैदा होती होगी। तो क्या इन सब जगहों पर भी महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग कर दिया जाए!
यह सोच अंततः कहां लेकर जाती है, यह सोच तालिबान तक पहुंचा देती है, जहां कोई लड़की यूनिवर्सिटी नहीं जा सकती, सरकारी दफ्तर में काम नहीं कर सकती, पुरुषों के साथ बैठकर बसों में यात्रा नहीं कर सकती, बाजार नहीं जा सकती। आखिर, एक राष्ट्र के तौर पर उच्च शिक्षा को लेकर हमारे उद्देश्य क्या हैं ? मोटे तौर पर कहें तो एक लोकतांत्रिक, उदार, समावेशी और प्रगतिशील समाज का निर्माण करना। जब तक युवा लड़के-लड़कियां एक-दूसरे के संपर्क में नहीं आएंगे, तब तक यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि एक-दूसरे के प्रति उनका दृष्टिकोण स्वस्थ होगा। व्यावहारिक तौर पर देखें तो गर्ल्स कॉलेज खत्म करने से जहां लड़कों के लिए एडमिशन के अवसर पैदा होंगे, वही स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का माहौल भी बनेगा।
इसका उदाहरण इस रूप में देख सकते हैं कि अब से दो दशक पहले देहरादून के एमकेपी पीजी गर्ल्स कॉलेज में करीब 8 हजार लड़कियां पढ़ती थी, आज वहां 3 हजार लड़कियां हैं, जबकि बराबर के डीएवी पीजी कॉलेज में, जो को-एजुकेशन का गढ़ है, वहां इस वक्त 7 हजार से अधिक लड़कियां पढ़ रही हैं। अब यदि एमकेपी गर्ल्स पीजी कॉलेज में भी लड़कों को एडमिशन देना शुरू करें तो दोनों संस्थाओं में समान रूप से संख्या बल मौजूद दिखाई देगा।
गर्ल्स कॉलेज के मामले में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि ऐसी संस्थाओं में लड़कियों की संख्या निरंतर घट रही है क्योंकि लड़कियां भी को-एजुकेशन को ही ठीक मानती हैं। लड़कियों की ऐसी ही मांग के चलते मौजूदा वर्ष में उत्तराखंड सरकार को हरिद्वार और उधमसिंह नगर जनपद में दो गर्ल्स डिग्री कॉलेजों को को-एजुकेशन में तब्दील करना पड़ा। इन कॉलेजों में कुल संख्या 100 पर भी नहीं पहुंच पा रही थी। यह बात सच है कि लड़के और लड़कियों का एडमिशन होने से इन संस्थाओं में संख्या बढ़ने के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी माहौल भी पैदा होगा।
अनेक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में यह बात स्थापित हुई है कि जहां लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते हैं अथवा साथ काम करते हैं वहां का माहौल ज्यादा सकारात्मक और स्वस्थ प्रतिस्पर्धी वाला होता है, बनिस्बत उन स्थानों के जहां केवल पुरुष अथवा केवल महिलाएं काम करती हैं। वर्तमान संदर्भों ,परिस्थितियों और संसाधनों की उपलब्धता के दृष्टिगत एकल एजुकेशन का विचार पुराना है और यह राष्ट्रीय संसाधनों का नुकसान करने वाला भी हैं।
वरिष्ठ पत्रकार डॉ० सुशील उपाध्याय की कलम से….