उत्तराखंड: राज्य में मिला शिकारी जाति का दुर्लभ कीटभक्षी पौधा. विलुप्त प्रजातियों के पौधों को संरक्षित करने का काम कर रहा उत्तराखंड वन विभाग की अनुसंधान विंग अपने कई उलब्धियों के लिए जाना जाता है.

इसी के तहत अनुसंधान केंद्र ने चमोली के गोपेश्वर रेंज के मंडल घाटी में यूट्रिकुलरिया फुरसेलटा  (Utricularia furcellata plant) नाम की कीटभक्षी पौधे की एक दुर्लभ प्रजाति को ढूंढ निकाला है

उत्तराखंड वन विभाग की अनुसंधान विंग हल्द्वानी की एक टीम ने दुर्लभ मांसाहारी पौधों की प्रजातियों की खोज की है और इसे जर्नल ऑफ जापानी बॉटनी में प्रकाशित किया गया है, जो कि प्लांट टैक्सोनॉमी और वनस्पति विज्ञान पर 106 साल पुरानी पत्रिका है।

उत्तराखंड वन विभाग की इस प्रतिष्ठित पत्रिका में यह पहला प्रकाशन है। सितंबर 2021 में उत्तराखंड वन विभाग के अनुसंधान विंग की एक टीम, जिसमें रेंज अधिकारी हरीश नेगी और जेआरएफ मनोज सिंह शामिल थे। उन्होंने गोपेश्वर के मंडल घाटी में इस मांसाहारी पौधे यूट्रिकुलरिया फुरसेलटा की खोज की।

उत्तराखंड मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान) संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि यह कीटभक्षी पौधा केवल उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि भारत के पूरे पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में पहली बार दुर्लभ मांसाहारी पौधे को रिकॉर्ड किया गया है। 1986 के बाद इस प्रजाति को भारत के किसी भी हिस्से में नहीं देखा गया है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में पर्यटन स्थल के भीतर भारी जैविक दबाव होने के कारण इस प्रजाति को खतरे का सामना करना पड़ रहा है।

मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी के मुताबिक, यह मांसाहारी पौधा एक जीनस से संबंधित है जिसे आमतौर पर ब्लैडरवॉर्ट्स के रूप में जाना जाता है, जो जाल के लिए सबसे परिष्कृत और विकसित पौधों की संरचनाओं में से एक का उपयोग करता है। यह यूट्रिकुलरिया फुरसेलटा कीटभक्षी पौधा है जो कीड़े-मकोड़ों के लार्वे खाकर उनसे नाइट्रोजन प्राप्त करता है। यह पौधा अपने शिकार के खून पर ही जीवित रहता है।

इसका संचालन केवल एक यांत्रिक प्रक्रिया पर आधारित है, जिसमें ट्रैप दरवाजे के अंदर शिकार को आकर्षित करने के लिए एक वैक्यूम के रूप में नजर आता है। ये पौधे ज्यादातर ताजे पानी और गीली मिट्टी में पाए जाते हैं। यह खोज उत्तराखंड में कीटभक्षी पौधों के अध्ययन की एक परियोजना का हिस्सा थी, जिसे वर्ष 2019 में अनुसंधान सलाहकार समिति (आरएसी) द्वारा अनुमोदित किया गया था। यह राज्य में इस तरह का पहला व्यापक अध्ययन था और अब तक लगभग 20 पौधों की प्रजातियां पर रिसर्च किया जा चुका है।