चीन-ताइवान विवाद का वैश्विक राजनीति पर प्रभाव विषय पर डॉ विकाश शुक्ला का ज्ञानवर्धक लेख| डॉ विकाश शुक्ला आप राजकीय डिग्री कॉलेज जखोली रुद्रप्रयाग उत्तराखंड में राजनीति विज्ञान में हेड ऑफ डिपार्टमेंट तथा तथा सहायक प्रोफेसर है|
यूक्रेन पर रूस के हमले के पश्चात वैश्विक राजनीति में जो लपटें उठीं उससे हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की राजनीति भी अछूती नहीं रही| इस हमले से हिन्द-प्रशांत की राजनीति में हलचल उत्पन्न हो गई है| इस हलचल की मुख्य वजह चीन का ताइवान के प्रति दशकों पुराना रवैया है|
दरअसल चीन ताइवान को अपनी वन चाइना पॉलिसी का हिस्सा मानता है और चीन के साथ उसके एकीकरण की बात करता है| इसका प्रभाव यह हुआ है कि ताइवान दशकों से चीन के खौफ के साये में जी रहा है| ताइवान का ये डर तब और बढ़ गया जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया| जहां एक ओर दुनिया रूस के इस कदम कि घोर आलोचना कर रही है| (मुख्य रूप से पश्चिमी और यूरोपीय देश) वहीं चीन रूस के इस कदम का समर्थन कर रहा है , इससे अनुमान यही लगाया जा रहा है कि चीन रूस की तरह ताइवान के प्रति भी ऐसा रुख अख़्तियार कर सकता है| और यही ताइवान के लिए निरंतर चिंता का विषय बना हुआ है| ऐसे में जापान की राजधानी टोक्यो में QUAD देशों की बैठक के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चीन को चेतावनी दे डाली| उन्होने कहा कि चीन अगर 1979 के समझौते के विरुद्ध जाकर ताइवान पर हमला करता है तो अमेरिका सैनिक कार्यवाही करने से भी पीछे नहीं हटेगा| अब हमारे जहन में यह सवाल उठता है कि आखिर 1979 का समझौता क्या है? जिसके उल्लंघन पर अमेरिका चीन को सैनिक कार्यवाही की धमकी दे रहा है|
चीन-ताइवान विवाद का मुख्य कारण:
ताइवान को पूर्व में फार्मोसा द्वीप के नाम से जाना जाता था| यह चीन के पूर्वी तट से दूर एक छोटा सा द्वीप है| यह द्वीप पूर्वी चीन सागर में मौजूद है और इसके दक्षिण-पश्चिम में हाँगकांग स्थित है, इसके दक्षिण में फिलीपींस जबकि उत्तर में दक्षिण कोरिया और उत्तर पूर्व मे जापान है| इसकी राजधानी ताइपे तट से अंदर उत्तरी हिस्से में स्थित है|
ताइवान की भौगोलिक स्थिति के चलते उसके आसपास जो कुछ भी होता है उसका प्रभाव सम्पूर्ण पूर्वी एशिया पर पड़ता है| दुनियाभर के मात्र 15 देश ताइवान को एक देश के रूप में मान्यता देते हैं| यह सभी देश या तो बहुत छोटे हैं या दूरदराज़ के द्वीपीय देश हैं| ताइवान के मौजूदा हालात की वजह नई नहीं है| इसके तार चीनी गृह युद्ध से मौलिक रूप से जुड़े हैं| चीन में 1949 में साम्यवादियों की विजय के साथ जब गृह युद्ध समाप्त हुआ तब जनरल चांग-काई-सेक को भागकर फार्मोसा द्वीप पर शरण लेनी पड़ी| यहीं से रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से समूचे चीन की निर्वासित सरकार का संचालन हो रहा था| हम सब जानते हैं कि चूंकि उस समय पूरी दुनिया शीतयुद्द का सामना कर कर रही थी, लिहाजा पूंजीवादी रुख अखियार करने के चलते कोमीतांग सरकार को अमेरिका का समर्थन मिला और अमेरिका ने चीनी रिपब्लिक को ही चीन की वास्तविक सरकार के रूप में मान्यता दे दी| उधर गृह युद्ध के पश्चात मुख्य भूमि चीन में साम्यवादियों द्वारा PRC अर्थात पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से चीन की वास्तविक सरकार चलाई जा रही थी| क्योंकि ये सरकार साम्यवादियों द्वारा चालाई जा रही थी इसीलिए अमेरिकी खेमे द्वारा इसे मानयाता नहीं दी जा रही थी| आगे चलकर अमेरिका ने 1979 की एक संधि के तहत PRC को ही चीन की वास्तविक सरकार के रूप में मान्यता दी और ताइवान को चीन का ही भाग मानते हुए उसके साथ सभी संबंध खत्म कर लिए और चीन की वन चाइना नीति को स्वीकार कर लिया| हालांकि ताइवान की चीन के साथ जबरन एकीकरण की बात स्वीकार नहीं की गई| अपनी स्थापना से ही PRC (पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना) का मानना है कि ROC (रिपब्लिक ऑफ चाइना) को चीन के साथ पुनः मिल जाना चाहिए| अब चूंकि ROC ने खुद को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थापित कर लिया है तो उस स्थिति में वह खुद को चीन के साथ नहीं जोड़ना चाहता| सभी वैश्विक राजनीति की उठापटक के बावजूद 1990 के दशक से PRC और ROC के मध्य सम्बन्धों में सुधार हुआ और व्यापारिक संबंध बहाल हुए| लेकिन हालिया वर्षों में दोनों देशो के संबंद्ध उतने बेहतर नहीं रहे और तनाव की स्थिति बनी हुई है|
तनाव का वर्तमान दौर शुरू होने का कारण:
कोरोना महामारी के दौरान व्यापार को लेकर अमेरिका और चीन के मध्य संबंध बिगड़ने शुरू हो गए| अमेरिकी सरकार ने अपने एक प्रतिनिधि मण्डल को ताइपे भेजा और उसी 2020 में अमेरिका ने ताइवान के साथ सैन्य अभ्यास किया| इस पर चीन ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की और राष्ट्रपति शी-जिनपिंग ने चीनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया| यह अमेरिका और ताइवान के लिए खुली चुनौती थी और ताइवान में इससे खतरे की घंटी बज गई| जिनपिंग ने चेतावनी देते हुए कहा कि ताइवान का आज़ादी की तरफ बढ्ने वाले किसी भी कदम को वो तोड़ देंगे| साथ ही जिनपिंग ने यह भी कहा कि ताइवान को वन चाइना नीति में शामिल करेंगे| अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि आखिर चीन की वन चाइना पॉलिसी क्या है?
चीन की वन चाइना पॉलिसी क्या है?
चीन की वन चाइना पॉलिसी चीन की उस राजनीति को व्यक्त करता है, जिसमें वह दावा करता है कि केवल एक ही चीनी सरकार है और उसकी मुख्य भूमि चीन है और ताइवान उसका अभिन्न अंग है|
इसके अलावा चीन की वन चाइना पॉलिसी चीन-अमेरिकी सम्बन्धों की मुख्य आधारशिला भी है| 1979 के समझौते को अपनाने के पश्चात से ही यह चीन-अमेरिकी सम्बन्धों का आधार और कूटनीति की बुनियाद भी है| चीन की वन चाइना पॉलिसी यह कहती है कि अगर कोई चीन के साथ संबंध रखना चाहता है तो उसे ताइवान के साथ किसी तरह का संबंध नहीं रखना है| परंतु बावजूद इसके अमेरिका और हिंदुस्तान जैसे देश ताइवान के साथ एक अनौपचारिक संबंध बनाए हुए हैं| अमेरिका ताइवान को हथियारों की बिक्री भी करता है जिससे हमले की स्थिति में वह अपना बचाव कर सके| वहीं ताइवान चीन की वन चाइना पॉलिसी को खारिज करते हुए कहता है कि ताइवान एक स्वतंत्र देश है जिसे आधिकारिक तौर पर चीनी रिपब्लिक कहा जाता है| ताइवान का कहना है कि अगर कोई भी देश मुख्य भूमि चीन के साथ राजनयिक संबंध रखना चाहता है तो उसे ताइवान के साथ आधिकारिक संबंध तोड़ लेने चाहिए| ताइवान के इस रुख परिणाम यह हुआ है कि ताइवान का वैश्विक बिरादरी के साथ अलगाव हो गया है| अब हमारे सम्मुख मुख्य प्रश्न यह खड़ा है कि अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो इससे वैश्विक राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो इससे वैश्विक राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं है कि चीन का ताइवान पर हमले का प्रभाव अत्यंत गहरा होगा, और यह प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था, वैश्विक शांति और स्थिरता पर गहराई से महसूस किया जाएगा| मेरा यह स्पष्ट मानना है कि भले ही चीन ताइवान पर हमला करने में सफल हो जाए परंतु उसे ताइवान पर कब्जा करने मे आसानी नहीं होगी| क्योंकि अमेरिका और हिंदुस्तान दोनों ही उसके इस रास्ते में रोड़ा बनेंगे| दूसरी स्थिति पर अगर गौर करें कि यदि चीन, ताइवान पर कब्जा करने में सफल हो जाता है तो इससे अमेरिका के सैन्य वर्चश्व के युग को समाप्त कर देगा, जो अमेरिका बिलकुल भी नहीं चाहेगा| प्रशांत-क्षेत्र में अपने सैन्य अड्डों को खोने के अलावा अमेरिका वैश्विक शक्ति के रूप में भी अपनी जगह खो देगा| हम जानते हैं कि दशकों से एशियाई देश अपनी सुरक्षा के लिए प्रशान्त-क्षेत्र में अमेरिका की सैन्य मौजूदगी पर निर्भर रहे हैं| ऐसे में अमेरिका अगर अपने लोकतान्त्रिक सहयोगियों के साथ खड़ा होने में विफल होता है तो न केवल अमेरिकी प्रभाव कमजोर होगा बल्कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था से भी लोगों का मोहभंग हो जाएगा| अमेरिका दूसरे देशों के साथ अपने सम्बन्धों को तय करने में लोकतन्त्र को मुख्य आधार बनाता है|
वैश्विक अर्थवयवस्था पर इसका प्रभाव
इसके अलावा इसका प्रभाव वैश्विक अर्थवयवस्था परभी देखने को मिलेगा|
ताइवान सेमीकंडक्टर चिप्स का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक है| सेमीकंडक्टर चिप्स के उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी लगभग ¾ है| अगर चीन ताइवान पर हमला करके कब्जा करता है तो वह सेमीकंडक्टर चिप्स के 80% उत्पादन पर कब्जा कर लेगा| इससे माइक्रोसॉफ्ट और एप्पल जैसी प्रमुख अमेरिकी कंपनियों के साथ साथ सैन्य रक्षा ठेकेदारों को भी चीन की दया पर निर्भर रहना होगा| एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका मध्य-पूर्व में तेल की तुलना में ताइवान की माइक्रोचिप्स पर अधिक निर्भर है| यही वह कारण है कि कई देश अपने यहाँ सेमीकंडक्टर चिप्स के उत्पादन का कार्य शुरू कर रहें हैं इसमें हिंदुस्तान भी शामिल है| लेकिन यह स्पष्टता के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि अभी ताईवानी विशेषज्ञता की बराबरी करना मुश्किल है|
चीन के प्रभुत्व का हिंदुस्तान, जापान, आस्ट्रेलिया जैसी क्षेत्रीय शक्तियों पर खासा प्रभाव पड़ेगा| वर्तमान में एशियाई शक्तियाँ अपने आर्थिक संतुलन के लिए चीन के साथ बड़े पैमाने पर आर्थिक रूप से जुड़ गई हैं| चीन के प्रभुत्व को क्षेत्रीय मुल्क और सुगम बना रहे हैं| जो जापान के लिए सुरक्षा चिंताएँ पैदा करेगा क्योंकि जापान के कई इलाकों पर चीन अपना दावा करता है| हिंदुस्तान के लिए भी यही स्थिति है| हिंदुस्तान को अपनी उत्तरी सीमा पर चीनी घुसपैठ का खतरा निरंतर बना हुआ है| दूसरी ओर दक्षिण-चीन सागर पर भी हालात लगभग समान ही हैं|
सीधे शब्दों में कहें तो यूक्रेन पर रूस के हमले के पश्चात ताइवान पर चीनी हमले की स्थिति में वैश्विक लोकतान्त्रिक व्यवस्था सत्तावाद के चंगुल में पड़कर बिखर जाएगी| हिंदुस्तान के सामने जो प्रश्न मौजूं है वो यह कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए?
हिंदुस्तान को ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?
हम जानते हैं कि बार-बार समझौतों के बावजूद LAC पर चीनी घुसपैठ से परेशान है| ऐसे में विशेषज्ञों ने सुझाव दिये हैं कि हिंदुस्तान को अपनी चीन नीति पर पुनः विचार करना चाहिए| अपनी नई चीन नीति का संदेश देने के लिए हिंदुस्तान न केवल तिब्बत कार्ड का इस्तेमाल करे बल्कि ताइवान के साथ भी अधिक मजबूत संबंध विकसित करे|
हिंदुस्तान ने इस दिशा में कदम बढ़ाए भी हैं जो चीन की पेशानी पर बल लाने का काम कर रहें हैं| हिंदुस्तान और ताइवान दोनों एक दूसरे की राजधानियों में व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यालय बनाए हुए हैं| हिंदुस्तान में साढ़े सात अरब डालर (7.5 अरब डालर) के सेमीकंडक्टर चिप्स उत्पादन के संयंत्र लगाने के लिए हिंदुस्तान, ताइवान के साथ वार्तालाप कर रहा है| पिछले वर्ष QUAD सम्मेलन को आधार बनाकर यह सौदा किया जा रहा है|
समय रहते अगर हिंदुस्तान, चीन के साथ अपने सम्बन्धों की समीक्षा नहीं करता है तो इसका खामियाजा हिंदुस्तान को कई मोर्चों पर उठाना पड़ सकता है|