बहुत ही ज्वलंत मुद्दे पर डॉ सुशील उपाध्याय का लेख , प्रोफेसरों की आईएएस बनने की चाहत !!!

उड़ीसा के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा लिए गए निर्णय से जुड़ी हुई खबर इन दिनों मीडिया माध्यमों पर काफी चर्चा में है। संबंधित खबर को शिक्षकों से जुड़े समूहों में काफी जोर-शोर से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है। इस खबर में बताया गया है कि अब उच्च शिक्षा से जुड़े लोग भी आईएएस अफसर बन सकेगे। यह सूचना जितने उत्साह से शिक्षकों के समूहों में प्रसारित की गई है, उससे कई सवाल पैदा हो रहे हैं और शिक्षकों के मन में मौजूद दबी-छिपी आकांक्षा भी उभर कर सामने आ रही है कि वे भी आईएएस श्रेणी में अफसर बनना चाहते हैं।

आईएएस अफसर बनना कोई बुरी बात नहीं है। यह पद समाज में विशेष प्रतिष्ठा, ताकत और वैभव का प्रतीक है, लेकिन जब कोई शिक्षक या प्रोफेसर आईएएस बनने के लिए लालायित और प्रेरित दिख रहा हो तो यह स्थिति वास्तव में चिंता पैदा करती है। बुनियादी बात यह है कि जब कोई व्यक्ति उच्च शिक्षा जैसे प्रोफेशन में आता है तो सामान्यतौर पर यह मान लिया जाता है कि वह किसी बड़े आदर्श को सामने रखकर इस कार्य के लिए प्रेरित हुआ है। पर, उड़ीसा का उदाहरण तो कुछ और ही बता रहा है।

वैसे, कोई भी प्रोफेसर अपने चरित्र में अफ़सर नहीं हो सकता, जबकि आईएएस के जरिये मिलने वाला पद और उससे जुड़े हुए दायित्व साफ तौर पर एक घाघ अफसर बनने की मांग कर करते हैं। तो जो लोग प्रोफेसर होने के बावजूद अफसर बनने के अभिलाषी हैं, उनकी प्रवृत्ति से साफ है कि वे एक गलत पेशे में आ गए हैं। तकनीकी आधारों पर भी देखें तो आईएएस अफसर बनने के लिए सामान्य ग्रेजुएट होना काफी है, जबकि उच्च शिक्षा में प्रोफेसर तो छोड़िए, असिस्टेंट प्रोफेसर करने के लिए अधिक ऊंची शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होती है। सैद्धांतिक तौर पर ही सही, भारत सरकार ने अपने सभी वेतन आयोगों के माध्यम से हर बार प्रोफेसरों का वेतन आईएएस से ऊंचा रखा है। ताकि यह संदेश जाए कि प्रोफेसर हमेशा ही किसी अफसर की तुलना में ऊंचे कद का व्यक्ति है।

वैसे, एक दौर रहा है, जब समाज के भीतर आईएएस अफसर के रुतबे और डर की तुलना में प्रोफेसरों का आदर कहीं ज्यादा था, लेकिन अब बदलती हुई सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में आईएएस अफसर को जिस तरह की आर्थिक सुविधाएं और पैसा जुटाने के अवसर प्राप्त हुए हैं, वैसे अवसर किसी प्रोफेसर के लिए उपलब्ध नहीं हैं। मनुष्य होने के नाते सम्भवतः कुछ प्रोफेसरों के मन में भी यह बात आई होगी कि उन्हें भी आईएएस अफसरों की तरह ताकत और हैसियत बनाने के अनन्त अवसर मिलने चाहिए।

वजह चाहे जो भी हो और यह वजह कितनी भी प्रभावपूर्ण क्यों ना हो, लेकिन ये दुखद और खेदजनक स्थिति होगी कि जब कोई प्रोफेसर आईएएस अफसर बनने के लिए लाइन में लगा लगा हो। हालांकि यहां यह स्पष्ट किया जाना बहुत जरूरी है कि हर एक राज्य में आईएएस श्रेणी में कुछ ऐसे पद होते हैं, जिन पर गैर कार्यकारी शाखा (नॉन सिविल सर्वेंट) के कार्मिकों का चयन किया जाता है। उदाहरण के लिए उत्तराखंड में आईएएस श्रेणी के 2 पद ऐसे विभागों के कार्मिकों को दिए जाते हैं जो न तो संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आईएएस और न ही राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा पीसीएस के रूप में चुने गए हैं। इस श्रेणी में अभी तक राज्य स्तर पर चुने जाने वाले एलाइड श्रेणी के अफसरों को आईएएस बनने का अवसर मिलता रहा है। इनके नाम राज्य सरकार संस्तुत करती है और संघ लोक सेवा आयोग इनका इंटरव्यू लेकर इन्हें आईएएस घोषित करता है।

अब उड़ीसा में हुआ यह है कि वहां के उच्च शिक्षा विभाग ने अपने विभागीय अफसरों जो कि मूलतः शिक्षक के रूप में ही चुने गए होते हैं, के नाम भी उपर्युक्त श्रेणी में भेजने का निर्णय लिया है। संभव है कि वहां पर कोई शिक्षक आईएएस के रूप में चुन भी लिया जाए, लेकिन किसी शिक्षक के आईएएस बनने से व्यवस्था में किस तरह का परिवर्तन आएगा और विशेष रूप से उच्च शिक्षा का क्या भला होगा, यह अभी और स्पष्ट नही है। जहां तक शिक्षकों और प्रोफेसरों के अफसर बनने का प्रश्न है, भारत सरकार ने भी कुछ साल पहले एक ऐसी स्कीम लॉन्च की थी, जिसके माध्यम से केंद्र सरकार में ज्वाइंट सेक्रेट्री लेवल पर सीधी भर्ती का निर्णय लिया गया था। इन पदों को प्रोफेसरों के लिए भी ओपन किया गया था, तब कुछ प्रोफेसरों ने भी आवेदन किए थे और इक्का-दुक्का लोगों को भारत सरकार में ज्वाइंट सेक्रेट्री, जोकि बुनियादी तौर पर आईएएस अधिकारियों का पद है, पर नियुक्ति मिली थी।

गौर करने वाली बात यह है कि यदि कोई प्रोफेसर अपने पेशे के प्रति जरा भी ईमानदारी रखता है तो उसे शैक्षिक जगत से अलग पदों पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उच्च शिक्षा विभाग के अलावा विश्वविद्यालयों में अनेक प्रशासनिक पद हैं, जिन पर शिक्षकों का ही चयन किया जाता है। इनमें रजिस्ट्रार, कुलपति और विभागीय निदेशक आदि पदों का उल्लेख किया जा सकता है। यह बात पूरी तरह से स्थापित है कि अफसर और प्रोफेसर की कार्यपद्धति, चीजों को देखने का ढंग और परिणाम हासिल करने की अप्रोच पूरी तरह अलग होती है। कुछ साल पहले उत्तराखंड के इक्का-दुक्का विश्वविद्यालयों में एमिनेंट स्कॉलर कैटेगरी में कुछ अफसरों को प्रोफ़ेसर बना दिया गया था। परिणाम यह निकला कि उन अफसरों ने, जो कि अब प्रोफेसर बन गए थे, पूरे अकादमिक माहौल को हिला कर रख दिया।

असल में, उन्हें यह तो पता है कि किसी अधीनस्थ कर्मचारी से किस तरह से काम लिया जाता है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता की अपने सहकर्मी शिक्षक और शोधार्थियों के साथ किस स्तर की बराबरी का व्यवहार किया जाना है। यही मिस मैच उस वक्त भी होगा जब कोई प्रोफेसर आईएएस बनकर अफसर की कुर्सी पर बैठेगा। उड़ीसा से आई इस खबर के बाद जो असिस्टेंट प्रोफेसर या एसोसिएट प्रोफेसर अफसर बनने के ख्वाब बन रहे हैं, उन्हें एक बार जरूर अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि कहीं वे गलत पेशे में तो नहीं आ गए हैं।