“सो मनुज मात्र के सुख के हेतु जताया”

राजेंद्र पांडे आप केंद्रीय अध्यात्म विज्ञान शाला ओंकारेश्वर के कोषाध्यक्ष हैं, द्वारा प्रेषित आध्यात्मिक लेख

नवम बुद्धावतार भगवान श्री मायानंद जी नें विज्ञानशाला की स्थापना कर पृथ्वी मात्र के मनुष्यों को जो सन्देश दिया उसका सार संक्षेप में उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है –

हे सज्जनवृन्दों! जरा ध्यानपूर्वक समझो और धारण करो । वर्तमान काल में काफी समय से प्रचलित ब्रह्मदेव कृत कर्म इष्टभोग के लिये तृष्णालोलुप रहनें वाले , किन्तु स्वकर्मच्युत आशावादी प्रवाहपतित पुरुषों की वृत्तियों की , मनोवृत्तियों की तृप्ति होने के हेतु निर्माण हुए हैं । कर्मकांडों से मनुष्य को क्षणिक सुख की अनुभूति अवश्य होती है किंतु कर्मफळासा में फसनें से स्थाई सुख शांति प्राप्त होना संभव नहीं है । स्वाभाविक वर्णकर्म निष्काम करनें से ही अचल सुख शांति मिलती है जो करनें से होते हैं वे कृत्रिम कर्म हैं और जैसा कर्म वैसा फल ये नियम प्राकृतिक है । भगवान् श्री मायानन्द जी नें श्रुतियों का सार निकालकर हमारे सन्मुख रख दिया है वे कहते हैं –

यह अनुभव का सत सार श्रुतिन में पाया ।

सो मनुज मात्र के सुख के हेतु जताया ।।

स्थाई सुख शांति का एक ही उपाय संवनन ऋषि नें बताई है वह है – विश्व ही विश्वरुप परमात्मा है यह जानों

विश्वरुप से प्रार्थना की है –

हे काम पूरक अग्ने (सर्व सुखों का अधिष्ठान)तू ईश्वर ( अक्षर आत्मा ) सब जगत में व्यापा हुआ है ; उत्तर वेदी में (बुद्धि में) तू प्रदीप्त (प्रकाशित)किया जाता है , तू हमको धन (निश्चय )दे ।।1।।

इसके प्राप्ति का उपाय :-

हे लोगो तुम एक विचार के होना ,वैसे ही एक विचार बोलो , तुम्हारे मन निश्चित (अनुभव) ज्ञान प्राप्त करें ।जिस प्रकार सतयुगी लोग एक मत से अपना कार्य सिद्ध करते रहे हैं उस प्रकार तुम अपने कार्य एक मत से करो ।।2।।

अपनी सबों को प्रार्थना एक होनीं चाहिए ;अपनें विचार का स्थान एक होना ;अपनें मन एक ही विचार में भरे रहें ;वैसे ही अपना सबों का ज्ञान भी एक समान होना चाहिए .मैं तुमको यह एक ही सर्वोत्कृष्ट रहस्य कहता हूँ की-हम सब मिलकर एक साहित्य से ही देव का पूजन करें ।।3।।

तुम्हारा अभिप्राय एक समान होना ,तुम्हारे अन्तःकरण एक समान होना ,तुम्हारा मन एक समान होना ,जिससे तुम्हारे संघ शक्ति का बल बढ़े ( स्थिर सत सुख मिले) ।

वर्तमान काल में सर्वांगयोग ही संघशक्ति का बल बढ़ा सकने में समर्थ है । सर्वांग जागृति का आधार ‘सर्वांगयोग’ है

रुढ़ीधर्म में आरंभ, परिणाम और विभ्रम इनका संपर्क होता है इसी से प्रत्यक्ष की- समत्व या दर्शन की क्रिया नहीं होती ।

पंचतत्व,तीन गुण ,क्षर-अक्षर यह वस्तुरूप सर्वांग हैं .इनका प्रत्यक्ष में अनुभव होने से योग की प्राप्ति होती है.

आत्मस्वरूप सर्वांग जाग्रत होने के कारण ,हर अवस्था को पहचानना इसी को सर्वांग जागृति कहा है . खोज बन्द होते ही निश्चय होता है और अनुभव सर्वांग से स्थित होता है . साकार और निराकार का भास लय हो वृत्ति सर्वरूप होकर ,चित्त जाग्रत रहता है . परंतु यह अवस्था जब प्रयत्न से लाई जाती है वह धुन कहलाती है जिसमें सहज अवस्था न रहकर कृत्रिमता रहती है और चित्त जागृति का अन्तःकरण स्वरूप नहीं होता और अहं, विश्वप्रकाश न पाकर विश्वावस्था को नहीं पाता । वृत्तियों की चक्रगति में व्याप्त हो मण्डलाकार जन्मदशा में घूमता है .परन्तु यदि यह अवस्था स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुई तो सहज समाधि होकर अपने कर्मों का दृष्टा हो ,सर्ववृत्तियाँ लय हो जाती हैं .सर्वांग जागृति होकर अहं विश्वप्रकाश ले विश्वरूप में लय होता है .यही सर्वांगयोग का यथार्थ साधन है .भविष्य में इसी साधन से विश्व में चिर सुख और शांति की स्थापना होगी । धन्य हैं भगवान श्री मायानंद चैतन्य जिन्होंने विश्वकल्याण के हेतु इतना सरल और सुखद साधन “सर्वांगयोग” में प्रगट कर दिया ।।

(नवम बुद्धावतार भगवान श्री मायानंद चैतन्य जी के जीवन चरित्र से -साभार)

उपरोक्त वेद वाक्यानुसार स्थिति प्राप्त होने के हेतु सबों को सत्स्वरूप का दर्शन होना आवश्यक है इसी उद्देश्य से विज्ञानशाला की स्थापना की है और सनातन योगयुक्ति दिव्यदृष्टि ( सर्वांगयोग)का अविष्कार किया है जो समस्त मानवों के लिए है बिना मूल्य ग्रहण कर सकते हैं ।

स्थिर सत सुख की इच्छावान ग्रहण कर सकते हैं ।।

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