वैदिक परम्परा : डा. अनूप कुमार मिश्र का आध्यात्मिक लेख डा.अनूप आप एकलव्य विश्वविद्यालय, दमोह (म.प्र.) में योग विज्ञान विभागाध्यक्ष हैं।
याज्ञवल्क्य स्मृति में ज्ञान के चौदह सूत्रों का उल्लेख प्राप्त होता है । यथा वेद– ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद वेदाङ्ग – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त,छन्द,एवं ज्योतिष, पुराण,न्याय,मीमांसा एवं धर्मशास्त्र।
पुराण-न्याय-मीमांसा-धर्मशास्त्र-मिश्रिताः वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश॥(याज्ञवल्क्य)
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्-ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥
तत्रापरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ (मुण्डकोपनिषद्)
मुण्डकोपनिषद् में विद्या को दो भाग में बताया गया है १.परा, २.अपरा
वेदाध्ययन में अधिकार –
ऋषियों द्वारा दृष्ट मन्त्रों की ज्ञानराशि को बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से वेदों के उपदेश को सभी के लिए अर्थात् मानव मात्र के कल्याण के लिए किया गया है ।हम सभी मनुष्य मूलरूप से परमात्मा की सन्तान हैं।
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।
ब्रह्म राजन्याभ्या शूद्राय चापर्याय च स्वाय चारणार च ॥(यजुर्वेद २६.९)
ऋषियों ने कल्याणकारी उपदेश समान रूप से सभी के लिए दिया है मनुष्यों में जो वर्णभेद प्राप्त होता है वह एक सामाजिक व्यवस्था है । इसलिए वेदों के अध्ययन में जातिगत कोई भेद नहीं है।इसमें में प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में वागाम्भृणी, काक्षावती,घोषा,आपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाएं एवं ब्रह्मवादिनियां हैं । ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि रूप में इतला दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय प्रसिद्ध हैं वेदों के लिए यह सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है।
वेद शब्द की निष्पत्ति –
वेद शब्द का अर्थ ज्ञान होता है । यह शब्द संस्कृत के मूल धातु से घञ् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है।जिसका अर्थ होता है जानना।
वेद को श्रुति कहा गया है क्यों कि यह श्रुतिपरम्परा है और यह आदि काल से है जिसमें मौखिक रूप से एक पीढी से दूसरी पीढी को कण्ठस्थ कराया जाता है।इसमें श्रवण करके ही याद कराना होता है ।
भारतीय परम्परा के अनुसार वेद को प्रकट ग्रन्थ स्वसाक्ष्य और आत्मप्रमाणित माना जाता है। यह वेद किसी भी मनुष्य के द्वारा रचित नहीं है अपितु ऋषियों के द्वारा द्रष्टव्य ही है अर्थात् वैदिक मन्त्र एवं सूक्त केवल ऋषियों के द्वारा देखे एवं बोले गये । ये द्रष्टा ऋषि मन्त्रके लेखक नहीं है ।
वेद के सबसे प्राचीन व्याख्याकार यास्क ही हैं। महान यास्क ने स्पष्ट रूप से यह कह दिया है कि इन वेद मन्त्रों के ऋषि केवल द्रष्टा मात्र हैं इन्होंने मन्त्रों को देखकर ज्ञानप्राप्ति के उपरान्त अपने अनुभूत ज्ञान जो मौखिक रूप से अपने वंशजों को सौंप दिया । महान टीकाकार सायण ने वेद की परिभाषा देते हुए कहा है कि –
इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोः यो लौकिकम् उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः
अर्थात् – इष्ट की प्राप्ति, अनिष्ट का परिहार जिस ग्रन्थ से प्राप्त होता है वही वेद है। मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्
इस परिभाषा से भी वेद का वर्णन प्राप्त होता है इसमें मुख्य रूप से दो भाग प्राप्त होता है १. मन्त्र, २.ब्राह्मण मन्त्र भाग वेद का मुख्य भाग है और मन्त्रहीन भाग ब्राह्मण भाग के अन्तर्गत आता है प्राचीन भारतीय पद्धति के अनुसार परिभाषाएं इसके महत्त्व को और स्पष्ट करती है।वेद शब्द का उच्चारण करते समय बहुत ही ध्यान दिया जाता है कि आधी मात्रा की भी गलती न हो इसका बार-बार अभ्यास कराया जाता है।
वेदों का स्वाध्याय –
वेद अत्यन्त प्राचीन होने के बाद भी आज पहले की ही भांति वर्तमान में भी इसका स्वरूप विशुद्ध एवं संरक्षित है । यूरोपीय विद्वान् मैक्समूलर भी यह मानते हैं कि आज भी वेदों के उच्चारण में शब्दों में कोई परिवर्तन नहीं है । इसका पूरा श्रेय हमारे ऋषियों को ही जाता है जिन्होंने हमें अपने समस्त ज्ञान के द्वारा वेदों के स्वाध्याय एवं वेदरक्षा के संरक्षण की अक्षुण्ण परम्परा आज भी जीवित रखा है।वैदिक मन्त्रों में उच्चारण विधि (स्वर) होते हैं जो कि वेद के मूल स्वरूप को ही संरक्षित करते हैं ।
वैदिक मन्त्रों को कण्ठस्थ करने के लिए प्रकृति पाठ(स्वाध्याय) होते हैं।
संहिता पाठ- संहितापाठ में मन्त्र अपने मूल स्वरूप में ही होता है।
पदपाठ– पदपाठ में मन्त्रों के शब्द को अलग-अलग करके उच्चारण किया जाता है।
क्रमपाठ – क्रमपाठ में मन्त्रों के दो शब्दों को संयुक्त रूप से उच्चारण किया जाता है जैसे- च-छ, छ-ज, ज-झ, जझ इत्यादि ।
वेद को कण्ठस्थ करने के लिए आठ प्रकार की विकृतियों का पाठ(स्वाध्याय) बताया गया है।
जटा पाठ
माला पाठ
शिखा पाठ
रेखा पाठ
ध्वज पाठ
दण्ड पाठ
रथ पाठ
घन पाठ
सभी पाठों (स्वाध्यायों) में घन पाठ कठिन और बडा है।