शब्दयात्री-83: वरिष्ठ पत्रकार डॉ सुशील उपाध्याय की कलम से: शब्दयात्री-83 “तब ‘वेदना’ पीड़ा नहीं थी”…..

किसी शब्द का क्या अर्थ होगा, इसके पीछे कोई तार्किक आधार होना जरूरी नहीं होता। इसलिए भाषा विज्ञान मोटे तौर पर यह स्वीकार करता है कि शब्द और उसके अर्थ का संबंध यादृच्छिक यानी काल्पनिक होता है।

इसी के चलते शब्दों के अर्थ भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और परिवेशगत कारणों से बदलते रहते हैं। बदलाव की प्रक्रिया सतत रूप से गतिमान रहती है।

अर्थ परिवर्तन के इस नियम को अब से लगभग ढाई हजार साल पहले भगवान बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेशों की भाषा के संदर्भ में देखें तो ऐसे सैकड़ों शब्द मिलेंगे जो अपने मूल अर्थ से बहुत दूर आ गए हैं।

इसका अर्थ यह है कि मौजूदा भाषाओं (हिंदी, उसकी उपभाषाओं, बोलियों और उपबोलियों) में उन शब्दों के वे अर्थ नहीं हैं जो अर्थ बुद्धकालीन भाषा अर्थात पाली में थे। इनमें से ज्यादातर शब्दावली धार्मिक प्रवृत्ति की है।

फिर भी अनेक शब्दों का प्रयोग आधुनिक संदर्भों में भी किया जा रहा है। ऐसे ही कुछ उदाहरण देखिए-
वर्तमान में आपत्ति और अनापत्ति शब्दों को ऐतराज और ऐतराज न करने के रूप में देखते हैं, जबकि बुद्धकालीन समय में आपत्ति का अर्थ पाप या अपराध था। यानी ऐसा कार्य जो नहीं किया जा सकता अथवा नहीं किया जाना चाहिए। अनापत्ति का अर्थ वे सभी कार्य, जो किए जाने चाहिए यानी इसके अर्थ को निर्दिष्ट कार्यों के रूप में भी देख सकते हैं। ऐसे ही जाति शब्द है। वर्तमान में जाति का अर्थ अंग्रेजी के कास्ट शब्द का पर्याय है, जबकि पाली में जाति का मूल अर्थ है- उत्पन्न होना या जन्म लेना है।
वर्तमान में राजकाज की भाषा में अधिष्ठान शब्द का काफी प्रयोग दिखाई देता है। इसे एस्टेब्लिशमेंट के अर्थ के रूप में ग्रहण किया जाता है। जबकि पाली में इस शब्द का अर्थ है- दृढ़ निश्चय। वस्तुतः ऐसे शब्दों की एक लंबी सूची है जिन्होंने अपने अर्थ परिवर्तित किए हैं।
इन दिनों भगवा सब को लेकर काफी चर्चा है। इसे एक रंग विशेष के संदर्भ में देखा जाता है और इस रंग को हिंदुओं के धार्मिक रंग के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, लेकिन पाली में भगवा का अर्थ है भगवान बुद्ध। ऐसे ही पिंड शब्द की यात्रा भी अलग तरह से हुई है। पिंडपात का अर्थ था- भोजन प्राप्त करने जाना। पिंड को भोजन के पर्याय के रूप में ही स्वीकार किया जाता था, लेकिन बाद में यह पिंड शब्द पिंडदान से होता हुआ हिंदुओं के अंतिम क्रियाओं के साथ जुड़ गया और अपने मूल अर्थ से बहुत दूर आ गया। (कुछ लोगों ने सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण इस पिंड को पींड अर्थात गोबर तक की यात्रा भी करा दी है। और कुछ ने कहा कि पाली और संस्कृत के पिंड अलग शब्द हैं इसलिए दोनों के अर्थ भी अलग हैं।

इस अवधि में विभिन्न शब्दों में अर्थ विस्तार और अर्थ संकोच की प्रक्रिया भी समानांतर रूप से चलती रही है। देवता शब्द में अर्थ संकोच हुआ है क्योंकि पहले इस शब्द को देवी और देवता दोनों के लिए प्रयोग में लाया जाता था, लेकिन अब पुरुष के लिए देवता और स्त्री के लिए देवी शब्द रूढ़ हो गया है। यही स्थिति खीर शब्द की भी हुई है। पहले दूध और दूध से बने सभी तरल खाद्य पदार्थ खीर कहलाते थे, लेकिन अब खीर का अर्थ दूध एवं चावल से बने एक विशेष प्रकार के मीठे भोजन तक सीमित हो गया है। पाली भाषा के पिय शब्द ने भी पिया यानी पति अथवा जीवनसाथी तक खुद को सीमित करते हुए अर्थ संकोच किया है। पूर्व में सभी प्रियजनों को पिय (पिया) कहा जाता था।

बदलाव की इस प्रक्रिया में कुछ शब्दों के अर्थ में थोड़ी गरिमा आ गई है। पहले निगम का अर्थ था कस्बा, लेकिन अब निगम का अर्थ है कोई बड़ा महानगर।
अर्थ बदलने की इस प्रक्रिया में कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि इनमें से ज्यादातर शब्द संस्कृत से ही पाली में आए हैं, लेकिन भाषा के जानकार लोगों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि पाली भाषा संस्कृत के समानांतर रूप में मौजूद थी और इसका विकास केवल संस्कृत से नहीं हुआ है। हां, यह जरूर है कि दोनों भाषाओं के एक- दूसरे के संपर्क में होने के कारण बहुत सारे शब्द समान रूप से दोनों में प्रयोग में लाए जाते थे।

पाली का साटक शब्द कपड़े के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है, थोड़ा गौर से देखिए तो साटक के साथ साटन की ध्वनि बहुत आसानी से जुड़ती है। अब भले ही नए फैशन में साटन का ज्यादा उल्लेख ना मिलता हो, लेकिन पुराने दौर की महिलाओं को साटन कपड़े की अच्छी जानकारी थी।

पाली भाषा में आदान-प्रदान शब्द का भी वह अर्थ नहीं है जो आज की भाषा में है। तब इसका अर्थ था-दान देना। अब हो लेन-देन हो गया है। वर्तमान में हिंदी में वेदना शब्द को पीड़ा या दर्द के अर्थ में ग्रहण किया जाता है, जबकि मूल रूप से इस शब्द का अर्थ था अनुभूति या सेंसेशन। इसीलिए दुख-वेदना और सुख-वेदना शब्दों का प्रयोग किया जाता था, लेकिन इसके अपने मूल अर्थ से दूर आने पर वेदना शब्द के साथ ‘सम’ उपसर्ग जोड़कर संवेदना बनाया गया और इसे सहानुभूति के रूप में स्वीकार कर लिया गया। (बाद में बने समानुभूति और स्वानुभुति की कहानी तो सभी को पता है।)

अब पचना शब्द को डाइजेस्ट होने के तौर पर लिया जाता है, जबकि पाली में इसका अर्थ था-पकाना। भूत और जिन शब्द के अर्थ भी वे नहीं थे जो आज हैं। भूत का अर्थ था पैदा हुआ प्राणी और जिन का अर्थ था जो सर्वस्व जानता हो। कई बार जिन शब्द को अरबी-फारसी वाले जिन्न के साथ भी जोड़ दिया जाता है, लेकिन दोनों का दूर तक कोई संबंध नहीं है।

पाली भाषा में सहायक का अर्थ सहयोग या सहायता करने वाला नहीं, बल्कि मित्र होता था और जिसे आज हम निस्सहाय कहते हैं, यानी जिसका कोई सहारा ना हो, उसका अर्थ था – आसरा या सहारा लेकर। वास्तव में इस शब्द के अर्थ का मूल अर्थ कोई रिश्ता ही नहीं रहा। रूप शब्द का भी अर्थ संकोच हुआ है।

भगवान बुद्ध के सुत्तों में रूप का अर्थ आंख से देखे जाने वाली कोई भी आकृति या भौतिक सामग्री है, जबकि वर्तमान में यह सौंदर्य तक सीमित रह गया है। यही स्थिति आगार शब्द की भी हुई। इसका अर्थ घर था, लेकिन अब इसे आगार में परिवर्तित करते हुए डिपो का पर्याय बना दिया गया है‌। (राजस्थान आदि प्रदेशों की रोडवेज बसों पर डिपो की जगह आगार शब्द देख सकते हैं। हालांकि, कारागार जैसे शब्दों में यह मूल अर्थ में बना हुआ है।)

उपेक्षा का अर्थ भी अनदेखी करना नहीं था। इसका मूल अर्थ निरपेक्ष या तटस्थ बने रहने के निकट था। जो लोग किसी कारोबार से जुड़े हुए हैं वे मूलधन और ब्याज धन को अच्छी तरह समझते हैं। पाली में मूल का अर्थ पैसे अथवा धन है, लेकिन कालांतर में मूल का अर्थ जड़ अथवा आधारभूत तक सीमित हो गया इसलिए धन का पर्याय होने के बावजूद मूल शब्द के पीछे एक और धन जोड़कर इसे मूलधन के रूप में स्पष्ट किया गया।

आज की अखबारी भाषा में बलवा का अर्थ है दंगा- फसाद, लेकिन पाली में इसका अर्थ है शक्तिसंपन्न अथवा बलवान। इसे भगवान बुद्ध के विशेषण के रूप में भी प्रयोग में लाया जाया जाता रहा है। वर्तमान हिंदी में गंतव्य शब्द को उस स्थान के लिए प्रयोग में लाया जाता है जहां हम जाने वाले हैं या जा रहे हैं, जबकि यह शब्द उन सभी स्थानों के लिए प्रयुक्त होता था जो जाने लायक हैं। विशेष रूप से धार्मिक स्थान।

कुछ शब्द नकारात्मक या विपरीत अर्थ भी ग्रहण कर गए हैं। ऐसे ही सोतू संज्ञा को अच्छे श्रोता के लिए प्रयोग में लाया जाता था, लेकिन अब सोतूराम ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो हमेशा आलस्य का शिकार रहता है और कुछ भी करने का इच्छुक नहीं होता। सन्निपात शब्द की भी यही स्थिति हुई है। पहले इसका अर्थ था-इकट्ठे होकर। अब सन्निपात को ज्वर के साथ जोड़कर देखा जाता है।

विभिन्न शब्दों पर दृष्टिपात के संबंध में विज्ञान शब्द को भी ले सकते हैं। वर्तमान में इसका अर्थ साइंस के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस शब्द का और निर्वचन करें तो इसे विशिष्ट ज्ञान कह सकते हैं, जबकि पाली में इसका अर्थ प्राण यानी वह जीवनधारा है जो किसी मनुष्य के जीवित होने का प्रमाण है।

आज अतीत शब्द को भूतकाल के संदर्भ में ग्रहण करते हैं, लेकिन पाली में इसका अर्थ भूतकाल नहीं है, बल्कि पूर्व में हुए जन्मों के संचित कर्मों के लिए अतीत शब्द को प्रयोग में लाया जाता है।
जारी..,……..
 वरिष्ठ पत्रकार  सुशील उपाध्याय की लेखनी से……