सुनीति त्यागी आप एचईसी कालेज हरिद्वार में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

सुनीति त्यागी का लेख: कन्या भ्रूण हत्या एक समाजिक चुनौती

आज हमें अपने देश में “बेटी बचाओ” जैसे अभियान की आवश्यकता आन पड़ी हैl कभी हमने सोचा है क्यों?

वैसे तो स्त्री शोषण के कई कारणों से समाज ग्रस्त हैं जिनमें हम कई निंदनीय कृत्य को देख सकते हैं परंतु मेरा विषय आज भूण हत्या को लेकर हैl

साहित्य की एक नई धारा स्त्री विमर्श में नारी को लेकर चर्चा और रचनाएं लिखी जा रही हैं जिनमें नारी के प्रति मुद्दों को उठाया गया है “नारी वस्तु नहीं व्यक्ति है”, “नारी भोग्या नहीं समाज में बराबरी की भागीदार है” ज्वलंत मुद्दों पर लेखन सर्जन हो रहा है परंतु क्या समाज साहित्य से बदलाव संभव है परंतु एक तबके तक ही शायद यह संभव हो सकता है जो बुद्धिजीवी हैं बुद्धिजीवी से मेरा आशय शिक्षित समाज से है परंतु जो तबका इस से हटकर है उसके लिए क्या तैयारी है ईसाई समाज में पत्नी को “बेटर हाफ” का दर्जा तथ हिंदू समाज में अर्धांगिनी का दर्जा प्राप्त है तो क्या इस बेटर हाफ अर्धांगिनी के बिना ही पूर्ण समाज की कल्पना कर सकते हैं शायद नहीं इसके लिए भूण हत्या जैसे घिनौने कृत्य पर और अधिक कानूनी दांवपेच की जरूरत है एक अभियान ही इसके लिए पर्याप्त नहीं है।

इसके लिए रूढ़ीवादी आस्था, आर्थिक परिस्थित, मनोवैज्ञानिकता खासतौर से पुरुष मानसिकता इन सब पर कार्य करना होगा और समाज में हुए इस तरह के परिवर्तन के द्वारा ही हम इन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं l आज उस नारी की श्रेष्ठता संदिग्ध है जिस नारी का गुणगान बखान करते हुए कवि साहित्यकार नहीं सकते थे नारी अपने गुणों एवं कर्तव्य से महान समझी जाती थी जिसमें एक नहीं दो-दो मात्राएं नर से भारी नारी कहा जाता था।

आज कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए सरकारी योजनाएं अमल में लाई जा रही हैं किंतु वह पर्याप्त नहीं है इसमें समाज की भागीदारी भी जरूरी है 21वीं सदी की ओर कदम बढ़ाते हुए अब वक्त आ गया है कि समाज के लिए बनाए गए हितकारी नियमों का पुनरावलोकन किया जाए और कन्या भ्रूण हत्या जैसी गंभीर चुनौती को गंभीरता से लेकर इस समस्या को दूर किया जाए l

क्या चिकित्सों के लिये मजबूत नीति संबंधी नियमावली नहीं होनी चाहिये।

क्या हर एक को लिंग परीक्षण को हटाने के पक्ष में नहीं होना चाहिये।

क्या आम लोगों को जागरुक करने के लिये कन्या भ्रूण हत्या जागरुकता कार्यक्रम नियमित रूप से नहीं होने चाहिये।

क्या एक निश्चित अंतराल के बाद महिलाओं (महिलाओं की मृत्यु, लिंग अनुपात, अशिक्षा और अर्थव्यवस्था में भागीदारी के संबंध में,) की स्थिति का मूल्यांकन नहीं होना चाहिये।