तुम कवि हो या कंडक्टर….. वरिष्ठ पत्रकार डॉ० सुशील उपाध्याय की कलम से..

अक्सर कुछ ऐसा संयोग होता है कि मुझे दौड़ कर ही बस पकड़नी पड़ती है। हरिद्वार से देहरादून के लिए निकला तो बस में चढ़ने के बाद पहली निराशा इस बात को लेकर हुई कि कोई सीट खाली नहीं थी। हालांकि अब 1 घंटे में बस हरिद्वार से देहरादून पहुंच जाती है, लेकिन दिनभर यूनिवर्सिटी में काम करने के बाद ऐसी उम्मीद और इच्छा रहती है कि बस में सीट मिल जाए तो बैठकर सो लिया जाए। मुझे यह बहुत बुरी लत है कि चाहे बस हो, ट्रेन हो या कार हो, बैठने के कुछ देर के बाद ही नींद आ जानी है। चूंकि खड़े-खड़े सोया नहीं जा सकता इसलिए सीट न मिलने का कष्ट कुछ ज्यादा ही अखरता है।

खैर, कंडक्टर की सीट पर जो सज्जन बैठे हुए हैं, वे कंडक्टर कम और शायर ज्यादा लग रहे हैं। दुबले-पतले हैं, सिर के बाल रंगे हुए हैं जो उनकी गर्दन तक फैले हैं। उन्होंने अपने बाल काफी जतन से रखे हुए हैं। शायद पहले पोनीटेल बनाते होंगे, लेकिन अब लटों की तरह बिखरे हुए हैं, बालों की जड़ों में सफेदी है। शायद वहां तक रंग नहीं जा पाता होगा, लेकिन बाकी हिस्सा काफी करीने से रंगा गया है। खादी की जैकेट और गले में लंबा मफलर और नाक के अगले हिस्से पर अटकी ऐनक, उसके व्यक्तित्व को अलग ही रंगत दे रही है।

ये व्यक्ति जब सवारियां बैठा रहा है तो उनके साथ काफी सलीके से और मोहब्बत से बात कर रहा है। ये बात अलग है कि गाड़ी में सभी सीटें पहले ही भर गई हैं। स्थिति ये है कि जितनी सवारियां सीटों पर बैठी हैं, लगभग उतनी ही खड़ी हुई हैं, लेकिन जहां भी कोई यात्री हाथ दे रहा है, कंडक्टर तुरंत बस रुकवा देता है। कभी कभी कोफ्त होती है कि इतनी सवारियां क्यों भरी जा रही हैं। फिर सोचता हूं कि जब शाम घिर रही होती है और आप कहीं बस के इंतजार में खड़े होते हैं और कोई इसलिए बस नहीं रोकता क्योंकि उसमें पहले से काफी सवारियां हैं तो बड़ी चिढ़ होती है, गुस्सा भी आता है।

ये सब बातें तो घटना का एक हिस्सा हैं। असली बात यह हुई कि जब मैंने टिकट के लिए पर्स निकाला तो देखा कि किराए में 20 रुपए कम पड़ रहे हैं। घर से निकलते वक्त ध्यान नहीं दिया। वैसे, आजकल कई तरह के कार्ड और मोबाइल ऐप के जरिए भुगतान की लत ने करेंसी रखने की आदत से काफी हद तक राहत दी हुई है। थोड़ी परेशानी हुई कि पैसे की कमी को कैसे मैनेज किया जाएगा। फिर सोचा कि बस स्टैंड के आसपास किसी एटीएम से निकाल कर दे दूंगा या फिर ऑनलाइन ट्रांसफर कर दूंगा।

कंडक्टर मेरे पास आता कि इससे पहले ही मैंने आगे बढ़ कर उन्हें अपनी समस्या बताई तो उन्होंने कहा कि उनके पास स्मार्टफोन नहीं है और फीचर फोन में पैसा ट्रांसफर होने जैसी सुविधा के बारे में उन्हें पता नहीं है। मैंने एटीएम वाला विकल्प दिया तो वे बोले कि आप बेवजह परेशान हो रहे हैं, जो पैसे आपके पास हैं, दे दीजिए। आगे कभी मुलाकात होगी तो बाकी पैसे दे दीजिएगा। कंडक्टर की उदारता का प्रत्युत्तर देने के लिए मेरे पास शब्द भी नहीं थे। मैं काफी कृतज्ञ महसूस करता रहा।

देहरादून में विधानसभा के पास तक ज्यादातर सवारियां बस से उतर गई। कंडक्टर ने मुझे पुकार कर अपने पास बैठा लिया और फिर बहुत सारी बातें होने लगी। उन्होंने पूछा कि मैं क्या करता हूं तो मैंने अपने प्रोफेशन के बारे में बताया। कंडक्टर को यह जानकर खुशी हुई कि मेरा प्रोफेशन पढ़ने-लिखने से जुड़ा हुआ है। फिर उन्होंने झिझकते हुए कहा कि वे भी कविताएं लिखते हैं और जब तक मैं इस बात को ठीक से समझ पाता तब तक उन्होंने प्रस्ताव रखा कि यदि मुझे परेशानी ना हो तो एक दो कविताएं सुन सकता हूं क्या!

उन्होंने मेरी सहमति के बिना ही अपनी कवितायें सुनानी शुरू कर दी और साथ-साथ ड्राइवर को, जिसका नाम योगेश था, कह दिया कि जो सवारी जहां उतरना चाहे, वहां उतार देना। अब बस स्टैंड तक परेशान मत करना, हालांकि मैंने कंडक्टर को बताया कि मुझे बस स्टैंड से पहले ही उतरना है, लेकिन कंडक्टर ने आग्रह किया कि मैं उनके साथ बस स्टैंड तक चलूं ताकि कुछ कविताएं सुन सकूं।

चूंकि मेरे ऊपर कंडक्टर का 20 रुपए का कर्ज था इसलिए मेरी मजबूरी रही कि मैंने बस स्टैंड तक जाकर कविताएं सुनी। कविताएं सुनते हुए भी मैं 20 रुपए के ऋण से मुक्ति के संभावित विकल्पों के बारे में सोचता रहा। फिर अचानक याद आया कि बैग में एक नया पेन पड़ा है जो किसी स्टूडेंट ने मुझे दिया था। मैंने बिना देर किए पैन निकाला और लगभग जबरन कंडक्टर की जेब में डाल दिया। हालांकि, वे लेने को तैयार नहीं थे।

बस से उतरते वक्त कंडक्टर ने मेरा मोबाइल नंबर भी ले लिया और अब वे अक्सर मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं। जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि कुछ ऐसा संयोग होता है कि मुझे लगभग हर दूसरे दिन दौड़कर बस पकड़नी पड़ती है। अब इन कंडक्टर से मिलने के बाद अब हर दूसरे- तीसरे दिन ऐसा संयोग हो जाता है कि या तो आते वक्त अथवा जाते वक्त इनसे मुलाकात हो जाती है। यह भला आदमी भी अपनी कविताओं के साथ तैयार रहता है और मेरे पास उसकी कविताओं को सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।

पिछले हफ्ते हुई मुलाकात में उन्होंने बहुत मासूमियत से पूछा कि कविताओं की किताब छपवाने में कितने पैसे लग जाते हैं! उनकी कविताएं अच्छी है या बुरी है, मैं इस पर नहीं जाना चाहता, लेकिन व्यक्ति बेहद सरल है, उदार है और अपने पेशे के प्रति निष्ठावान भी। मेरे मन में उसके लिए इसलिए भी आदर है कि शायद वह गलती से इस पेशे में आ गए होंगे, वरना तो मन उसका भी कविताएं रचने का है। किस्सागो किस्म के आदमी हैं क्योंकि जब भी मुलाकात होती है तो बस यात्रा के दौरान हुई किसी न किसी घटना के बारे में जरूर बताते हैं। और फिर इन्हीं घटनाओं को केंद्र में रखकर कविताएं भी लिखते हैं। जितनी बार उनसे मिलता हूं, हर बार भ्रमित होता हूं कि कंडक्टर से मिला हूं या कवि से अथवा कवि से मिला हूं या फिर कंडक्टर से।
उनकी एक कविता की कुछ पंक्ति देखिए….

रात के गहरे अंधेरे में
इस सुनसान रास्ते में क्यों खड़ी हो मेरी बेटी!
यह भेड़ियों का इलाका है,
यहां रहते हैं और भी भयानक जानवर।
तुम यहां कर रही हो किसका इंतजार,
यहां कोई भी रक्षक नहीं है।
सब है लुटेरे मेरी बेटी।
मेरे साथ चलो मैं छोड़ता हूं तुम्हें
तुम्हारे घर तक ताकि तुम रह सको सुरक्षित
भेड़ियों से भरी इस जगह में।

वरिष्ठ पत्रकार डॉ० सुशील उपाध्याय की कलम से..